Wednesday 13 January 2016

मां और राशन की बोरी...

घर से वापस लौट आने के बाद दो ही चीज़ें साथ रह जाती हैं. एक मां का वो अंतिम बार देखा रुआंसा चेहरा और एक मां के हाथों से बांध दी गई वो राशन की बोरी.
राशन की बोरी जिसमें थोड़ा सा आटा, थोड़ी दाल, थोड़ा चूड़ा, थोड़ा तिलवा, कई बार अचार और थोड़ा ज़्यादा चावल के साथ गांव-घर का ढेर सारा एहसास होता है.
ये सारी भौतिक चीजें समय की रफ़्तार के साथ खत्म होती जाती हैं और बढ़ता जाता है वो एहसास जिसे हम साथ लेकर चलते हैं, ओढ़ते-बिछाते हैं.
चावल जिसे हम शुरुआत में भात बना कर छक कर खाते हैं और उसके खत्म होते-होते उसे थोड़ा खीर के लिए बचा लेना चाहते हैं.
मां को कभी थैंक्यू नहीं कहा न, वो थैंक्यू का मतलब जानती भी कहां है.
ज़्यादा शिकायती भी नहीं है. बस चाहती है कि हम आदमी बन जाएं. अब तो आदमी बनना जिम्मेदारी भी लगता है और दबाव भी.
जिम्मेदारी इस लिए कि वह सिर्फ़ एक ही चीज़ तो है जो वो हमसे चाहती है और दबाव इसलिए कि इस बेतरतीब और मतलबी दुनिया में आदमी बन पाना और लगातार आदमी बने रहना कितना मुश्किल हो गया है.

Wednesday 16 December 2015

जनरल बोगी का सफरनामा...

ज़िंदगी और ‪घुटन‬ को एक साथ महसूसना हो तो उत्तर प्रदेश और बिहार से भारत के महानगरों की ओर आने-जाने वाली ट्रेनों के जनरल डिब्बे में कभी सफर करिए.
ज़िंदगी इसलिए क्योंकि चलती का नाम ही गाड़ी और ज़िंदगी है और घुटन इसलिए क्योंकि ये घिसट-घिसट कर चलना भी कोई ज़िंदगी है.
शायद, अमूल बॉडी वार्मर. 'ठंड में गर्मी का अहसास' प्रचार का आईडिया लेखक को यहीं बैठे-लेटे आया होगा.
ठंड में यहां ठंड नहीं बल्कि, गाड़ी के रुक जाने पर माथे पर पसीना होता है.
किसी भी स्टेशन पर यदि आप इस प्रतीक्षा में हैं कि तीन लोगों के उतरने से थोड़ी राहत होगी, तो ग्यारह लोगों को चढ़ जाने की वजह से मामला गंभीर हो जाता है. आपको ऐसा लगता है जैसे वे सारे लोग आपकी खड़ी होने वाली जगह को लेकर ही हमलावर और प्रतीक्षारत हैं.
जितनी जगह में सामान्य तौर पर आठ से दस लोगों को बैठना चाहिए, उतनी जगह में कोई पचास लोग बैठे-लेटे-लुढ़के और खड़े होते हैं.
टॉयलेट जाने का खयाल तो आप अपने दिल-ओ-दिमाग में न लाएं तो ही बेहतर, और कहीं ये खयाल आपको खुदा-ना-खास्ता आ गया तो फिर वहां बिन पानी का नल आपका बेसब्री से इंतजार कर रहा होता है. पेशाब भी आप वहां बमुश्किल कर सकते हैं.
लोगों की फ्रस्टेशन का शिकार वे दरवाजे, जहां लोग न जाने कहां-कहां से और किनके-किनके नंबर लिख डालते हैं. कई तो इन्हीं दरवाजों पर उनकी फाइन-आर्ट्स का बकायदा शोऑफ भी कर देते हैं, कस्सम से क्या कमाल की कलाकारी होती है. उसे देख कर उबकाई और हंसी दोनों साथ-ही-साथ आती है.
आप चाहे बोगी के किसी हिस्से में बैठे हों, समय-समय पर आपका स्वागत करने के लिए "मानवीय गैस के भभके" तो फिर आसमानी होते हैं.
रोते-बिलखते बच्चे और मुंह खोल कर बेसुध सोती मांएं यहां की हक़ीकत का हिस्सा हैं.
आप कहीं भी बैठिए, कोई जूता या बैग बिना बताए आपकी देह और सिर पर गिर सकता है. आप अधिक सौभाग्यशाली हुए तो कई बार भरी-भराई टिफिन तो कई बार खाली. होने को तो ये भी हो सकता है कि आप झपकी लेने की पुरजोर कोशिश कर रहे हों और पानी की बोतल आप पर झटके से खुल कर गिर पड़े.
बोगी की फर्श पर बेसुध सोए किसी शख़्स का मोबाइल गिर सकता है और उसे सबकी नज़रों से बचा कर उठा ले गया शख़्स किसी की चौकस नज़र में आ गया हो. सुबह होते ही हो-हल्ला और फिर वो कहानियां का सिलसिला कि, "हम ओके कैसे फोन उठावत देखली हs, उ हम्मे कैसे चोर निगाह से कनखी ताकत रहल हs. कैसे उ हमके देखते कांपे लगल हौ, और हम कैसे बड़का-बड़का चोर-चिहाड़ के भी खाली देखिए कि जान जाइला कि ऊ कवन लेवल कs खुराफाती हs, और महादेव हमके कैसे दिव्य नज़र से नवज़ले हउउन.
ये सब कुछ वहां बिना किसी स्क्रिप्ट के घटता है, या फिर होने को तो ये भी हो सकता है कि सारी स्क्रिप्ट किसी ने पहले से ही लिख दी हो.
बहरहाल, तो ये है हम-सभी की मजबूरी और कई बार ज़रूरत जनरल बोगी का हाल. आंखों देखा और सहा गया.
वैसे तो हम यहां के रेगुलर विजिटर हैं, मगर अब यहां भसड़ कुछ ज्यादा ही मचने लगी है. पता नहीं ‪‎बुलेट ट्रेन‬ के सुनहरे सपने किन भारतीयों को लुभाने के लिए हैं.
हम तो अब तक गरीब रथ के अलावा कभी एसी का टिकट कटवा ही नहीं पाए हैं. और सही कहें तो हमरी हैसियत भी नहीं है या फिर कि कई बार सिद्धांत आड़े आ जाता है. हां, मगर एक बार नौकरी छोड़ने से पहले एसी वन टियर में सफर करने की दिली-तमन्ना है. कोई भलामानुष दोस्त चाहे तो टिकट गिफ्ट कर सकता है. हम सहर्ष स्वीकारेंगे. ऊपर से उसको फेसबुक पर टैग करके बधाई देंगे सो अलग.
अथ श्री जनरल बोगी जनरल-स्पेशल कथा.
#ज़िंदगी #घुटन ‪#‎टॉयलेट‬ ‪#‎मानवीय_भभके‬ #बुलेट_ट्रेन

Wednesday 16 September 2015

ईया की याद में...

किसी को बेसबब याद करने की भी कोई-न-कोई वजह होती है. आज सुबह से ही ईया की बहुत याद आ रही है. हम दादी को ईया कह कर संबोधित किया करते थे. अभी हम किशोरावस्था में प्रवेश करने ही वाले थे कि ईया हमें छोड़ कर चली गईं.

ईया जो हमारे संयुक्त परिवार की धुरी थीं, ईया जिन्हें पूरे गांव-जवार वाले किसी देवी-देवता के तौर पर जानते-मानते थे. धार्मिक और आध्यात्मिक इतनी कि कभी स्कूली शिक्षा न लेने के बावजूद कई पुराणों और महाकाव्यों की ज्ञाता थीं. मगर आज ईया को याद करने की वजह भी बहुत अजीब है.

ईया गांव में रहती थीं और हम अपनी पढ़ाई के सिलसिले में गांव-बदर ही नहीं बल्कि राज्य-बदर कर दिए गए थे. मगर गर्मी की छुट्टियां हमेशा गांव पर ही बीता करती थीं. गर्मी की छुट्टियों के बाद कोई एक चीज़ जिसका स्वाद अब-तक ज़हन में तरोताजा है वो चीज़ ‪‎खखोरी‬ है,जिसे कई जगहों पर खुरचन भी कहते हैं. गांव में दूध गरमाने के लिए तब बोरसी का इस्तेमाल होता था, और दूध गरमाने वाला बर्तन जिसे 'हड़िया' कहके संबोधित किया जाता था. उसमें गरमाया जाने वाला दूध हल्के लाल रंग का हो जाता और नेचुरल रूप से मीठा दूध जिसमें शक्कर डालने की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती.

मगर सारे दूध के खत्म हो जाने के बाद किसी एक चीज़ जिसका हम बेसब्री से इंतज़ार करते वह खखोरी थी. खखोरी जो हड़िया(मृदभांड) के तलहटी में जमा-बैठा और जला दूध हुआ करती थी. खखोरी जो ख़ुद के साथ मिट्टी की सौंधी महक लिए होती थी. साल के दस महीने हमारे गांव-घर में होने की वजह से उस पर आस-पड़ोस के लड़के-लड़कियों और बिल्लियों का कब्ज़ा हुआ करता था, तो जाहिर है कि हमारी मौजूदगी बहुतों को नागवार गुज़रती और हमेंं पहली लड़ाई तो घर में रहने वाली बिल्लियों से ही करनी पड़ती, मगर हम भी कहां मानने वाले थे.
खखोरी को खखोरने के लिए भी ‪‎सितुहा‬ नामक अद्भुत चीज़(पदार्थ) का इस्तेमाल किया जाता था.
सितुहा जिसे हम ताल-पोखर के सूखने के बाद घर ले आया करते और पत्थर पर रगड़-रगड़ कर उसे छिलनी में तब्दील कर दिया करते. सितुहा जो गरीबों की छिलनी हुआ करता , जिससे कच्चे आम, आलू और सारी हरी सब्जियां का ऊपरी आवरण हटाया जाता. उसमें छेद हो जाने पर वो छिलनी और छेद न होने पर खखोरी निकालने के काम आता.

‪‎सितुहे‬ से हड़िया(मृदभांड) के खखोरे जाने की आवाज़ के साथ ही वहां बिल्लियों औऱ आस-पड़ोस के लड़के-लड़कियों की जमात पहुंचने लगती, मगर अब तो हम वहां के मालिक थे और ‪‎फर्जी_डॉन‬ भी. तो जाहिर है कि सबसे ज़्यादा हिस्सा भी हम हीं हड़पने की कोशिश करते. अपने भाई-बहनों में सबसे ज़्यादा चटोर और दूध के ख़ासे शौकीन भी और ईया हमारे इस दूध-प्रेम के लिए ज़िम्मेदार भी थीं और प्रोत्साहक भी. आज़ न जाने क्यों ईया याद आ रही हैं, और याद आ रही है खखोरी और ‪अद्भुत_सितुहा‬ भी.

‪#‎गांव_घर‬ ‪#‎नॉस्टैलजिया‬ #खखोरी #सितुहा ‪#‎हम_आप‬

Sunday 23 August 2015

मिडिल क्लास और जूस की दुकान...

किसी भी ‪#‎मिडिल_क्लास‬ और ‪#‎बिलो_मिडिल_क्लास‬ की आर्थिक स्थिति और जद्दोज़हद का जायजा लेना हो तो किसी "जूस की दुकान" पर खड़े हो जाइए.
गन्ने वाली जूस की दुकान पर नहीं...
मोसम्मी और मिक्स जूस बेचने वाली दुकान पर.
एक छोटा सा परिवार जिसमें एक ख़ूबसूरत सी पत्नी है, एक हैंडसम सा पति है और एक छोटा बच्चा भी...
जूस की दुकान पर पहुंचते ही "एक ग्लास जूस" का ऑर्डर करता है.
पत्नी उससे कहती है कि आप भी तो पी लीजिए, एक ग्लास और ऑर्डर कर दीजिए. आप अपने स्वास्थ्य का तो कतई खयाल नहीं रखते.
पति कहता है, अरे अभी-अभी तो तुमने पराठे खिलाए हैं, और ऊपर से दूध भी, मेरा तो आज का कोटा पूरा हो गया. तुम्हें इसकी ज़्यादा ज़रूरत है.
पत्नी दुकानदार के हाथों से जूस के ग्लास को लेकर पति को कृतार्थ नज़रों से देखती है और पति मन-ही-मन अपनी सीमित सैलरी और माह का हिसाब कर रहा होता है. पत्नी उसी जूस के ग्लास में से उनके दुधमुंहे बच्चे को जूस ज़रा सा चटा देती है, और वह बच्चा खट्टे जूस के स्वाद से आंखें मंटकाने और मुंह बिचकाने लगता है.
दोनो पति-पत्नी सिर्फ़ एक दूसरे को दिखने वाली मुस्कान बिखेरते हैं.
जूस खत्म होते ही दोनों जूस वाले को एक-साथ शुक्रिया कह कर विदा लेते हैं. इस उम्मीद में कि अगली बार तुम्हें दो ग्लास जूस का ऑर्डर ही दिया जाएगा.
#मिडिल_क्लास ‪#‎जद्दोज़हद ‬ ‪#‎जूस_की_दुकान‬

Monday 7 July 2014

राजनीति में आपद् धर्म

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के पूर्वाद्ध में भारत वर्ष संपन्न हुए आम-चुनाव में जनता ने जहां भारतीय जनता पार्टी सहित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को प्रचंड बहुमत से नवाजा, वहीं पिछले दस वर्षों से सत्ता पर काबिज कांग्रेस सहित संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को उनके अबतक के न्यूनतम आंकड़ों तक समेट दिया, और कांग्रेस को तो इस लायक भी न छोड़ा कि वे पारम्परिक तौर-तरीकों पर चलकर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल कर सकें।अाखिरकार नेता प्रतिपक्ष के संवैधानिक पद पर काबिज होने के लिए कांग्रेस को या तो तत्कालीन सरकार के रहमो-करम की जरुरत है या फिर उन्हें अदालत के दरवाजे खटखटाने पड़ सकते हैं।  मगर इन सभी के बीच बिहार प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य  बड़ी तेजी से बदल रहा है जिस पर राजनीतिक पंडितों की नजरें अब तक नहीं पड़ी है, वह है आपातकाल के दिनों में संघर्षों के साथी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का  फिर एक बार साथ आना।
कहना न होगा कि अभी कुछ समय पहले ही नीतीश कुमार बतौर मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी नित पूर्ववर्ती सरकार को "जंगल राज" की संज्ञा से नवाजते थे, और लालू प्रसाद यादव नीतीश सरकार को फिरकापरस्तों को प्रश्रय और बढ़ावा देने के आरोप के साथ-साथ ही दंगल राज का तमगा देते थे।  मगर इस बदलते राजनीतिक परिदृश्य में गर कल की तारीख में लालू प्रसाद यादव नीतीश कुमार के साथ मंच साझा करते और चुनाव लड़ते दिखाई दें तो कोई आश्चर्य न होगा, मगर इन सभी के बीच हवा का रूख भांपने में माहिर लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान पहले ही अपने रंग दिखा चुके हैं,और जिन सांप्रदायिक ताकतों के साथ कल तक दिखना पसंद नहीं करते थे आज उसी पार्टी नित सरकार की गोद में कैबिनेट मंत्री बने बैंठे हैं। इस प्रकार इन तीनों तथाकथित समाजवादियों ने दिखा दिया है कि राजनीति में तात्कालिक नफा-नुकसान को देखकर ही कदम आगे या पीछे बढ़ाए जाते हैं। मगर इन सब के बीच खुद को मंडलवाद और सामाजिक न्याय का अगुआ साबित करने वाले इन तीनों  राजनेताओं के सामने सबसे बड़ा धर्म है "आपद् धर्म"अर्थात् अपने अस्तित्व को बचाने का धर्म कि जब आफत पड़ जाए तो जैसे भी हो अपने अस्तित्व को बचाओ,फिर उसके बाद दूसरे काम किए जाएंगे। इन सभी के बीच खुद को समाजवादी कहने वाले इन राजनेताओं को शायद स्मरण न हो कि डा. राम मनोहर लोहिया के "आपद धर्म" सिद्धांत के  अनुसार,''जब कभी हम किसी सिद्धांत के मामले में फंस जाएं तो बजाय समझौता करने के मर जाएं और हमारे मर जाने के बाद जो नई पौध आएगी वह इस धर्म को और ज्यादा अच्छी तरह चला सकेगी। अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए अगर हमने अपने सब सिद्धांत,उसूल,धर्म छोड़ दिया तो उसके साथ इतना मजा नहीं रह जाएगा। हम अपने अस्तित्व को बचाकर न्याय को कायम नहीं रख सकेंगें इसलिए ज्यादा अच्छा होगा कि हम उसमें मिट जाएं,और लोग कायम हों।" काश ये बात उन तक भी पहुंचे जो डा. लोहिया की राजनीति के स्वयंभू ठेकेदार बने बैठे हैं। 

Wednesday 29 January 2014

राजनैतिक दल और उनका आंतरिक लोकतंत्र

आज जब हम 2014 के आम चुनाव के मुहाने पर खड़े हैं और तमाम राष्ट्रीय और गैर-राष्ट्रीय पार्टियाँ अपने-अपने प्रत्याशियों को तमाम कसौटियों पर कस रहीं है। मगर इन सब के बीच जो एक मुद्दा कहीं पीछे छूट चुका
है विभिन्न पार्टियों के भीतर का आंतरिक लोकतंत्र आखिर क्या कारण है कि तमाम टी वी चैनलों के पैनल बहसों और प्रिंट मीडिया की खोजी नजरों से यह अब तक बचा हुआ है या फिर यह किसी व्यापक रणनीति का हिस्सा है।
निर्वाचन आयोग के अनुसार भारत में कुल छह राष्ट्रीय पार्टियाँ हैं जिनमे 1885 में बनी राष्ट्रीय कांग्रेस,1925 में सीपीआई, 1964 में सीपीआई(एम), 1980 में भाजपा , 1984 में बसपा और 1999 में बनी शरद पवार की राकांपा हैं। 
वहीं वर्तमान में राज्य स्तरीय पार्टियों की संख्या सैतालीस तक पहुँच चुकी  है जिसमें 2012 में बनी आम आदमी पार्टी भी शामिल हो  गयी है और जो तमाम विवादों और चर्चाओं के बावजूद आज राष्ट्रीय राजधानी, दिल्ली प्रदेश की सत्ता  पर काबिज है।
आज जब तमाम राष्ट्रीय और गैर-राष्ट्रीय पार्टियाँ अपने प्रचार-प्रसार और प्रौपोगेंडा के तहत पी.आर एजेंसियों को मोटी रकम देकर अनुबंधित कर रही हैं और अपने-अपने नेताओं की लार्जर दैन लाइफ छवि को बनाने की कोशिश में लगी हुयी हैं तो क्या लोकतंत्र के मायने सिर्फ चुनावी सफलता ही हैं और नेताओं का चुनाव जीतकर सत्ता की कुर्सी पर काबिज होना ही एक मात्र सच्चाई और ऐसा होता देखना ही जनता की नियति सवाल गम्भीर है मगर इसके जवाब ढूंढना उससे कहीं ज्यादा कठिन ।
अगर शुरूआत कांग्रेस पार्टी से ही की जाए जहाँ कि 2014 के चुनाव के लिए राहुल गाँधी सेनापति नियुक्त किए जा चुके है और जिनकी सरपरस्ती की बातें कई बार स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वीकार चुके है आखिर क्या कारण है  कि कांग्रेस का के कामराज प्लान बिल्कुल से धराशायी हो चुका है और क्षेत्रीय छत्रपों के उभार को पार्टी  और संगठन  सकारात्मकता से लेने के बाजार इसे राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए खतरा मानती है और भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष' मै मुखिया तो हूँ पर सरकार नहीं हूँ '   के भाव  में आत्ममुग्ध और बेफिक्र नजर आते हैं। आखिर कौन है जो गाँधी -नेहरु परिवार से लोहा लेकर भी कांग्रेस पार्टी में रह सकता है और जहाँ चाटुकारिता ही एक मात्र विकल्प है आप के उपर तक जाने का और संगठन में बने रहने का।
                                                                                                                                                                                        अब दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी  भाजपा को ही लेते है जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष तो राजनाथ सिंह है मगर ऐसा महसूस नहीं होता कि कमान उनके  हाथों  से होते हुए प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के हाथो में जाती प्रतीत होती है जो भले आगामी आम चुनाव में भाजपा को सफलता दिला दे मगर एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी का इस तरह से संचालित होना दुर्भाग्यपूर्ण वर्ना कोई कारण न था कि पार्टी के वरिष्ठतम नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी के विरोध के बावजूद नरेन्द्र मोदी उनके प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनते।
 सीपीआई और सीपीआई(एम) जैसी खुद को राष्ट्रीय के बजाए अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा पर चलने वाली राष्ट्रीय पार्टियां तो हालांकि काडर बेस्ड पार्टियाँ मानी जाती है मगर अपने ही दल के नेताओं के निजी अहम् और टकराव से जूझ रही हैं और अपने ही कद को छोटा करने पर तुली हुई हैं। और इसी का परिणाम है कि अपने तमाम प्रयासों के बावजूद वे मुख्यधारा और मीडिया के बहसों से कहीं गायब सी हो गई लगती हैं।
            अब बात राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की जो कि मुख्यतया महाराष्ट्र की पार्टी है मगर उसने अपने पैर और तमाम राज्यों में फैलाए हैं।क्या कारण है कि शरद पवार के बाद अजित पवार और सुप्रिया सुले ही  उस गद्दी के स्वाभाविक दावेदार माने जाते हैं और इस पर न कहीं बहस है और न ही प्रश्न चिन्ह?
यह बहस बहन कुमारी मायावती की बहुजन समाज पार्टी तक न पहुंचे तो शायद सारा प्रसंग ही अधूरा लगेगा। क्या कारण है कि कुमारी मायावती की सार्वजनिक सभाओं में आज भी  मात्र एक कुर्सी रखी जाती है और जो सिर्फ खुद के दम पर पार्टी को चलाना चाहती हैं और उनसे किसी भी तरह के सवाल -जवाब की गुंजाइश नहीं है तो क्या इस तरह मायावती बाबा साहब और कांशीराम के सपनों को  रंग दे पाएंगी। जहां खुद को सशक्तित करना ही उनका एक मात्र लक्ष्य रह गया है।
           अब बात अगर कुछ गैर राष्ट्रीय पार्टियों की न जाए तो यह बहस अधूरी ही छूट जाएगी , जिनकी संख्या 50 तक पहुंच चुकी है। 2014 के आम चुनाव के बाद खुद को दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सपना देखने वाली समाजवादी पार्टी आज एक परिवार विशेष की पार्टी बनकर रह गई दिखती है और इसमें कुनबापरस्ती अपने चरम पर नजर आती है और तमाम प्रयासों के बावजूद अखिलेश यादव की स्थिति उस असहाय सारथी जैसी हो गई दिखती है जिसके रथ के पहिए परिवारवाद के दलदल में फंस गए हैं। तात्कालिक विवाद द्रविड़ मुनेत्र कजघम के नेतृत्व को लेकर हैं जहाँ पार्टी के राष्ट्रीय मुखिया एम.करूणानिधि ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी एम.स्टालिन को घोषित कर दिया है जिसे लेकर दूसरे धड़े जिसमें एम.के अलागिरी  थे और उस तकरार को शांत करने के बजाए  उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। और अगर जल्द ही इससे छुटकारा नहीं  पाया गया तो इनकी दुर्गति होना साफ-साफ दिखता है।
                                                   उत्तरी भारत या फिर कहें कि हिन्दी पट्टी की विभिन्न राजनैतिक क्षेत्रिय पार्टियां अपने-अपने संगठनों को अपनी बपौती और जागीर मान चुकी है और अपने कार्यकर्ताओं को अपना गुलाम। शायद इसीलिए इन तमाम क्षेत्रीय पार्टियों के राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ '' सुप्रीमों '' शब्द जुड़ता है जैसे राजद सुप्रीमों ,जद(यू)सुप्रीमों,लोजपा सुप्रीमों ,सपा सुप्रीमों या फिर बसपा सुप्रीमों। यह सुप्रीमों शब्द ही अपनी कहानी बयाँ करता नजर आता है और तमाम तरह के बहसों की गुंजाइश पर विराम लगाता प्रतीत होता है मगर क्या इस रास्ते पर चलकर ये पार्टियां लोकतंत्र को मजबूत कर पाएंगी या फिर  कालिदास की तरह यह जिस डाल पर बैंठी हैं  उस डाल को काटने की प्रक्रिया में लगी हैं। इस पर ही गोरख पांडे याद आते हैं कि
''तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई जमीं नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीं नहीं
मैं इस बेपनाह अंधेरे को सुबह कैसे कहूँ?
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।''






Thursday 23 January 2014

समझदारों का गीत

– गोरख पाण्डे
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।