Monday 7 July 2014

राजनीति में आपद् धर्म

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के पूर्वाद्ध में भारत वर्ष संपन्न हुए आम-चुनाव में जनता ने जहां भारतीय जनता पार्टी सहित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को प्रचंड बहुमत से नवाजा, वहीं पिछले दस वर्षों से सत्ता पर काबिज कांग्रेस सहित संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को उनके अबतक के न्यूनतम आंकड़ों तक समेट दिया, और कांग्रेस को तो इस लायक भी न छोड़ा कि वे पारम्परिक तौर-तरीकों पर चलकर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल कर सकें।अाखिरकार नेता प्रतिपक्ष के संवैधानिक पद पर काबिज होने के लिए कांग्रेस को या तो तत्कालीन सरकार के रहमो-करम की जरुरत है या फिर उन्हें अदालत के दरवाजे खटखटाने पड़ सकते हैं।  मगर इन सभी के बीच बिहार प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य  बड़ी तेजी से बदल रहा है जिस पर राजनीतिक पंडितों की नजरें अब तक नहीं पड़ी है, वह है आपातकाल के दिनों में संघर्षों के साथी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का  फिर एक बार साथ आना।
कहना न होगा कि अभी कुछ समय पहले ही नीतीश कुमार बतौर मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी नित पूर्ववर्ती सरकार को "जंगल राज" की संज्ञा से नवाजते थे, और लालू प्रसाद यादव नीतीश सरकार को फिरकापरस्तों को प्रश्रय और बढ़ावा देने के आरोप के साथ-साथ ही दंगल राज का तमगा देते थे।  मगर इस बदलते राजनीतिक परिदृश्य में गर कल की तारीख में लालू प्रसाद यादव नीतीश कुमार के साथ मंच साझा करते और चुनाव लड़ते दिखाई दें तो कोई आश्चर्य न होगा, मगर इन सभी के बीच हवा का रूख भांपने में माहिर लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान पहले ही अपने रंग दिखा चुके हैं,और जिन सांप्रदायिक ताकतों के साथ कल तक दिखना पसंद नहीं करते थे आज उसी पार्टी नित सरकार की गोद में कैबिनेट मंत्री बने बैंठे हैं। इस प्रकार इन तीनों तथाकथित समाजवादियों ने दिखा दिया है कि राजनीति में तात्कालिक नफा-नुकसान को देखकर ही कदम आगे या पीछे बढ़ाए जाते हैं। मगर इन सब के बीच खुद को मंडलवाद और सामाजिक न्याय का अगुआ साबित करने वाले इन तीनों  राजनेताओं के सामने सबसे बड़ा धर्म है "आपद् धर्म"अर्थात् अपने अस्तित्व को बचाने का धर्म कि जब आफत पड़ जाए तो जैसे भी हो अपने अस्तित्व को बचाओ,फिर उसके बाद दूसरे काम किए जाएंगे। इन सभी के बीच खुद को समाजवादी कहने वाले इन राजनेताओं को शायद स्मरण न हो कि डा. राम मनोहर लोहिया के "आपद धर्म" सिद्धांत के  अनुसार,''जब कभी हम किसी सिद्धांत के मामले में फंस जाएं तो बजाय समझौता करने के मर जाएं और हमारे मर जाने के बाद जो नई पौध आएगी वह इस धर्म को और ज्यादा अच्छी तरह चला सकेगी। अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए अगर हमने अपने सब सिद्धांत,उसूल,धर्म छोड़ दिया तो उसके साथ इतना मजा नहीं रह जाएगा। हम अपने अस्तित्व को बचाकर न्याय को कायम नहीं रख सकेंगें इसलिए ज्यादा अच्छा होगा कि हम उसमें मिट जाएं,और लोग कायम हों।" काश ये बात उन तक भी पहुंचे जो डा. लोहिया की राजनीति के स्वयंभू ठेकेदार बने बैठे हैं। 

Wednesday 29 January 2014

राजनैतिक दल और उनका आंतरिक लोकतंत्र

आज जब हम 2014 के आम चुनाव के मुहाने पर खड़े हैं और तमाम राष्ट्रीय और गैर-राष्ट्रीय पार्टियाँ अपने-अपने प्रत्याशियों को तमाम कसौटियों पर कस रहीं है। मगर इन सब के बीच जो एक मुद्दा कहीं पीछे छूट चुका
है विभिन्न पार्टियों के भीतर का आंतरिक लोकतंत्र आखिर क्या कारण है कि तमाम टी वी चैनलों के पैनल बहसों और प्रिंट मीडिया की खोजी नजरों से यह अब तक बचा हुआ है या फिर यह किसी व्यापक रणनीति का हिस्सा है।
निर्वाचन आयोग के अनुसार भारत में कुल छह राष्ट्रीय पार्टियाँ हैं जिनमे 1885 में बनी राष्ट्रीय कांग्रेस,1925 में सीपीआई, 1964 में सीपीआई(एम), 1980 में भाजपा , 1984 में बसपा और 1999 में बनी शरद पवार की राकांपा हैं। 
वहीं वर्तमान में राज्य स्तरीय पार्टियों की संख्या सैतालीस तक पहुँच चुकी  है जिसमें 2012 में बनी आम आदमी पार्टी भी शामिल हो  गयी है और जो तमाम विवादों और चर्चाओं के बावजूद आज राष्ट्रीय राजधानी, दिल्ली प्रदेश की सत्ता  पर काबिज है।
आज जब तमाम राष्ट्रीय और गैर-राष्ट्रीय पार्टियाँ अपने प्रचार-प्रसार और प्रौपोगेंडा के तहत पी.आर एजेंसियों को मोटी रकम देकर अनुबंधित कर रही हैं और अपने-अपने नेताओं की लार्जर दैन लाइफ छवि को बनाने की कोशिश में लगी हुयी हैं तो क्या लोकतंत्र के मायने सिर्फ चुनावी सफलता ही हैं और नेताओं का चुनाव जीतकर सत्ता की कुर्सी पर काबिज होना ही एक मात्र सच्चाई और ऐसा होता देखना ही जनता की नियति सवाल गम्भीर है मगर इसके जवाब ढूंढना उससे कहीं ज्यादा कठिन ।
अगर शुरूआत कांग्रेस पार्टी से ही की जाए जहाँ कि 2014 के चुनाव के लिए राहुल गाँधी सेनापति नियुक्त किए जा चुके है और जिनकी सरपरस्ती की बातें कई बार स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वीकार चुके है आखिर क्या कारण है  कि कांग्रेस का के कामराज प्लान बिल्कुल से धराशायी हो चुका है और क्षेत्रीय छत्रपों के उभार को पार्टी  और संगठन  सकारात्मकता से लेने के बाजार इसे राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए खतरा मानती है और भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष' मै मुखिया तो हूँ पर सरकार नहीं हूँ '   के भाव  में आत्ममुग्ध और बेफिक्र नजर आते हैं। आखिर कौन है जो गाँधी -नेहरु परिवार से लोहा लेकर भी कांग्रेस पार्टी में रह सकता है और जहाँ चाटुकारिता ही एक मात्र विकल्प है आप के उपर तक जाने का और संगठन में बने रहने का।
                                                                                                                                                                                        अब दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी  भाजपा को ही लेते है जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष तो राजनाथ सिंह है मगर ऐसा महसूस नहीं होता कि कमान उनके  हाथों  से होते हुए प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के हाथो में जाती प्रतीत होती है जो भले आगामी आम चुनाव में भाजपा को सफलता दिला दे मगर एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी का इस तरह से संचालित होना दुर्भाग्यपूर्ण वर्ना कोई कारण न था कि पार्टी के वरिष्ठतम नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी के विरोध के बावजूद नरेन्द्र मोदी उनके प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनते।
 सीपीआई और सीपीआई(एम) जैसी खुद को राष्ट्रीय के बजाए अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा पर चलने वाली राष्ट्रीय पार्टियां तो हालांकि काडर बेस्ड पार्टियाँ मानी जाती है मगर अपने ही दल के नेताओं के निजी अहम् और टकराव से जूझ रही हैं और अपने ही कद को छोटा करने पर तुली हुई हैं। और इसी का परिणाम है कि अपने तमाम प्रयासों के बावजूद वे मुख्यधारा और मीडिया के बहसों से कहीं गायब सी हो गई लगती हैं।
            अब बात राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की जो कि मुख्यतया महाराष्ट्र की पार्टी है मगर उसने अपने पैर और तमाम राज्यों में फैलाए हैं।क्या कारण है कि शरद पवार के बाद अजित पवार और सुप्रिया सुले ही  उस गद्दी के स्वाभाविक दावेदार माने जाते हैं और इस पर न कहीं बहस है और न ही प्रश्न चिन्ह?
यह बहस बहन कुमारी मायावती की बहुजन समाज पार्टी तक न पहुंचे तो शायद सारा प्रसंग ही अधूरा लगेगा। क्या कारण है कि कुमारी मायावती की सार्वजनिक सभाओं में आज भी  मात्र एक कुर्सी रखी जाती है और जो सिर्फ खुद के दम पर पार्टी को चलाना चाहती हैं और उनसे किसी भी तरह के सवाल -जवाब की गुंजाइश नहीं है तो क्या इस तरह मायावती बाबा साहब और कांशीराम के सपनों को  रंग दे पाएंगी। जहां खुद को सशक्तित करना ही उनका एक मात्र लक्ष्य रह गया है।
           अब बात अगर कुछ गैर राष्ट्रीय पार्टियों की न जाए तो यह बहस अधूरी ही छूट जाएगी , जिनकी संख्या 50 तक पहुंच चुकी है। 2014 के आम चुनाव के बाद खुद को दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सपना देखने वाली समाजवादी पार्टी आज एक परिवार विशेष की पार्टी बनकर रह गई दिखती है और इसमें कुनबापरस्ती अपने चरम पर नजर आती है और तमाम प्रयासों के बावजूद अखिलेश यादव की स्थिति उस असहाय सारथी जैसी हो गई दिखती है जिसके रथ के पहिए परिवारवाद के दलदल में फंस गए हैं। तात्कालिक विवाद द्रविड़ मुनेत्र कजघम के नेतृत्व को लेकर हैं जहाँ पार्टी के राष्ट्रीय मुखिया एम.करूणानिधि ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी एम.स्टालिन को घोषित कर दिया है जिसे लेकर दूसरे धड़े जिसमें एम.के अलागिरी  थे और उस तकरार को शांत करने के बजाए  उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। और अगर जल्द ही इससे छुटकारा नहीं  पाया गया तो इनकी दुर्गति होना साफ-साफ दिखता है।
                                                   उत्तरी भारत या फिर कहें कि हिन्दी पट्टी की विभिन्न राजनैतिक क्षेत्रिय पार्टियां अपने-अपने संगठनों को अपनी बपौती और जागीर मान चुकी है और अपने कार्यकर्ताओं को अपना गुलाम। शायद इसीलिए इन तमाम क्षेत्रीय पार्टियों के राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ '' सुप्रीमों '' शब्द जुड़ता है जैसे राजद सुप्रीमों ,जद(यू)सुप्रीमों,लोजपा सुप्रीमों ,सपा सुप्रीमों या फिर बसपा सुप्रीमों। यह सुप्रीमों शब्द ही अपनी कहानी बयाँ करता नजर आता है और तमाम तरह के बहसों की गुंजाइश पर विराम लगाता प्रतीत होता है मगर क्या इस रास्ते पर चलकर ये पार्टियां लोकतंत्र को मजबूत कर पाएंगी या फिर  कालिदास की तरह यह जिस डाल पर बैंठी हैं  उस डाल को काटने की प्रक्रिया में लगी हैं। इस पर ही गोरख पांडे याद आते हैं कि
''तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई जमीं नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीं नहीं
मैं इस बेपनाह अंधेरे को सुबह कैसे कहूँ?
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।''






Thursday 23 January 2014

समझदारों का गीत

– गोरख पाण्डे
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।