निर्वाचन आयोग के अनुसार भारत में कुल छह राष्ट्रीय
पार्टियाँ हैं जिनमे 1885 में
बनी राष्ट्रीय कांग्रेस,1925 में सीपीआई, 1964 में सीपीआई(एम), 1980 में भाजपा
, 1984 में बसपा और 1999 में बनी शरद पवार की राकांपा
हैं।
वहीं वर्तमान में राज्य स्तरीय पार्टियों की
संख्या सैतालीस तक पहुँच चुकी है जिसमें 2012 में बनी आम आदमी पार्टी भी शामिल हो गयी है और जो तमाम विवादों और चर्चाओं
के बावजूद आज राष्ट्रीय राजधानी, दिल्ली प्रदेश की सत्ता पर काबिज है।
आज जब तमाम राष्ट्रीय और गैर-राष्ट्रीय पार्टियाँ अपने प्रचार-प्रसार और प्रौपोगेंडा के तहत पी.आर एजेंसियों को मोटी
रकम देकर अनुबंधित कर रही हैं और अपने-अपने नेताओं की लार्जर
दैन लाइफ छवि को बनाने की कोशिश में लगी हुयी हैं तो क्या लोकतंत्र के मायने सिर्फ
चुनावी सफलता ही हैं और नेताओं का चुनाव जीतकर सत्ता की कुर्सी पर काबिज होना ही एक
मात्र सच्चाई और ऐसा होता देखना ही जनता की नियति सवाल गम्भीर है मगर इसके जवाब ढूंढना
उससे कहीं ज्यादा कठिन ।
अगर शुरूआत कांग्रेस पार्टी से ही की जाए जहाँ
कि 2014 के चुनाव के लिए राहुल
गाँधी सेनापति नियुक्त किए जा चुके है और जिनकी सरपरस्ती की बातें कई बार स्वयं प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह स्वीकार चुके है आखिर क्या कारण है कि कांग्रेस का के कामराज प्लान बिल्कुल
से धराशायी हो चुका है और क्षेत्रीय छत्रपों के उभार को पार्टी और संगठन सकारात्मकता से लेने के बाजार इसे
राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए खतरा मानती है और भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष' मै मुखिया तो हूँ पर सरकार नहीं हूँ
' के भाव में आत्ममुग्ध और बेफिक्र नजर आते
हैं। आखिर कौन है जो गाँधी -नेहरु परिवार से लोहा लेकर भी कांग्रेस
पार्टी में रह सकता है और जहाँ चाटुकारिता ही एक मात्र विकल्प है आप के उपर तक जाने
का और संगठन में बने रहने का।
अब दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी भाजपा को ही लेते है जिसके राष्ट्रीय
अध्यक्ष तो राजनाथ सिंह है मगर ऐसा महसूस नहीं होता कि कमान उनके हाथों से होते हुए प्रत्यक्ष या परोक्ष
रुप से राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के हाथो में जाती प्रतीत होती है जो भले आगामी आम
चुनाव में भाजपा को सफलता दिला दे मगर एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी का इस तरह से संचालित
होना दुर्भाग्यपूर्ण वर्ना कोई कारण न था कि पार्टी के वरिष्ठतम नेता श्री लाल कृष्ण
आडवाणी के विरोध के बावजूद नरेन्द्र मोदी उनके प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनते।
सीपीआई और सीपीआई(एम) जैसी खुद को राष्ट्रीय के बजाए अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा पर चलने वाली राष्ट्रीय पार्टियां तो हालांकि काडर बेस्ड पार्टियाँ मानी जाती है मगर अपने ही दल के नेताओं के निजी अहम् और टकराव से जूझ रही हैं और अपने ही कद को छोटा करने पर तुली हुई हैं। और इसी का परिणाम है कि अपने तमाम प्रयासों के बावजूद वे मुख्यधारा और मीडिया के बहसों से कहीं गायब सी हो गई लगती हैं।
सीपीआई और सीपीआई(एम) जैसी खुद को राष्ट्रीय के बजाए अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा पर चलने वाली राष्ट्रीय पार्टियां तो हालांकि काडर बेस्ड पार्टियाँ मानी जाती है मगर अपने ही दल के नेताओं के निजी अहम् और टकराव से जूझ रही हैं और अपने ही कद को छोटा करने पर तुली हुई हैं। और इसी का परिणाम है कि अपने तमाम प्रयासों के बावजूद वे मुख्यधारा और मीडिया के बहसों से कहीं गायब सी हो गई लगती हैं।
अब बात राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की जो कि मुख्यतया महाराष्ट्र की पार्टी
है मगर उसने अपने पैर और तमाम राज्यों में फैलाए हैं।क्या कारण है कि शरद पवार के बाद
अजित पवार और सुप्रिया सुले ही उस गद्दी के स्वाभाविक दावेदार माने जाते हैं और इस पर न कहीं बहस है और न
ही प्रश्न चिन्ह?
यह बहस बहन कुमारी मायावती की बहुजन समाज पार्टी
तक न पहुंचे तो शायद सारा प्रसंग ही अधूरा लगेगा। क्या कारण है कि कुमारी मायावती की
सार्वजनिक सभाओं में आज भी मात्र एक कुर्सी रखी जाती है और जो
सिर्फ खुद के दम पर पार्टी को चलाना चाहती हैं और उनसे किसी भी तरह के सवाल
-जवाब की गुंजाइश नहीं है तो क्या इस तरह मायावती बाबा साहब और कांशीराम
के सपनों को रंग दे पाएंगी।
जहां खुद को सशक्तित करना ही उनका एक मात्र लक्ष्य रह गया है।
अब बात अगर कुछ गैर राष्ट्रीय पार्टियों की न जाए तो यह बहस अधूरी ही छूट जाएगी
, जिनकी संख्या 50 तक पहुंच चुकी है।
2014 के आम चुनाव के बाद खुद को दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सपना देखने
वाली समाजवादी पार्टी आज एक परिवार विशेष की पार्टी बनकर रह गई दिखती है और इसमें कुनबापरस्ती
अपने चरम पर नजर आती है और तमाम प्रयासों के बावजूद अखिलेश यादव की स्थिति उस असहाय
सारथी जैसी हो गई दिखती है जिसके रथ के पहिए परिवारवाद के दलदल में फंस गए हैं। तात्कालिक
विवाद द्रविड़ मुनेत्र कजघम के नेतृत्व को लेकर हैं जहाँ पार्टी के राष्ट्रीय मुखिया
एम.करूणानिधि ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी एम.स्टालिन को घोषित कर दिया है जिसे लेकर दूसरे धड़े जिसमें एम.के अलागिरी थे
और उस तकरार को शांत करने के बजाए उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। और अगर जल्द ही इससे छुटकारा
नहीं पाया गया तो इनकी
दुर्गति होना साफ-साफ दिखता है।
उत्तरी भारत या फिर कहें कि हिन्दी पट्टी की विभिन्न राजनैतिक
क्षेत्रिय पार्टियां अपने-अपने संगठनों को अपनी बपौती और जागीर
मान चुकी है और अपने कार्यकर्ताओं को अपना गुलाम। शायद इसीलिए इन तमाम क्षेत्रीय पार्टियों
के राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ '' सुप्रीमों '' शब्द जुड़ता है जैसे राजद सुप्रीमों ,जद(यू)सुप्रीमों,लोजपा सुप्रीमों
,सपा सुप्रीमों या फिर बसपा सुप्रीमों। यह सुप्रीमों शब्द ही अपनी कहानी
बयाँ करता नजर आता है और तमाम तरह के बहसों की गुंजाइश पर विराम लगाता प्रतीत होता
है मगर क्या इस रास्ते पर चलकर ये पार्टियां लोकतंत्र को मजबूत कर पाएंगी या फिर कालिदास की तरह यह जिस डाल पर बैंठी
हैं उस डाल को काटने
की प्रक्रिया में लगी हैं। इस पर ही गोरख पांडे याद आते हैं कि
''तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई जमीं नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीं नहीं
मैं इस बेपनाह अंधेरे को सुबह कैसे कहूँ?
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।''