Wednesday 13 January 2016

मां और राशन की बोरी...

घर से वापस लौट आने के बाद दो ही चीज़ें साथ रह जाती हैं. एक मां का वो अंतिम बार देखा रुआंसा चेहरा और एक मां के हाथों से बांध दी गई वो राशन की बोरी.
राशन की बोरी जिसमें थोड़ा सा आटा, थोड़ी दाल, थोड़ा चूड़ा, थोड़ा तिलवा, कई बार अचार और थोड़ा ज़्यादा चावल के साथ गांव-घर का ढेर सारा एहसास होता है.
ये सारी भौतिक चीजें समय की रफ़्तार के साथ खत्म होती जाती हैं और बढ़ता जाता है वो एहसास जिसे हम साथ लेकर चलते हैं, ओढ़ते-बिछाते हैं.
चावल जिसे हम शुरुआत में भात बना कर छक कर खाते हैं और उसके खत्म होते-होते उसे थोड़ा खीर के लिए बचा लेना चाहते हैं.
मां को कभी थैंक्यू नहीं कहा न, वो थैंक्यू का मतलब जानती भी कहां है.
ज़्यादा शिकायती भी नहीं है. बस चाहती है कि हम आदमी बन जाएं. अब तो आदमी बनना जिम्मेदारी भी लगता है और दबाव भी.
जिम्मेदारी इस लिए कि वह सिर्फ़ एक ही चीज़ तो है जो वो हमसे चाहती है और दबाव इसलिए कि इस बेतरतीब और मतलबी दुनिया में आदमी बन पाना और लगातार आदमी बने रहना कितना मुश्किल हो गया है.

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