किसी को बेसबब याद करने की भी कोई-न-कोई वजह होती है. आज सुबह से ही ईया की बहुत याद आ रही है. हम दादी को ईया कह कर संबोधित किया करते थे. अभी हम किशोरावस्था में प्रवेश करने ही वाले थे कि ईया हमें छोड़ कर चली गईं.
ईया जो हमारे संयुक्त परिवार की धुरी थीं, ईया जिन्हें पूरे गांव-जवार वाले किसी देवी-देवता के तौर पर जानते-मानते थे. धार्मिक और आध्यात्मिक इतनी कि कभी स्कूली शिक्षा न लेने के बावजूद कई पुराणों और महाकाव्यों की ज्ञाता थीं. मगर आज ईया को याद करने की वजह भी बहुत अजीब है.
ईया गांव में रहती थीं और हम अपनी पढ़ाई के सिलसिले में गांव-बदर ही नहीं बल्कि राज्य-बदर कर दिए गए थे. मगर गर्मी की छुट्टियां हमेशा गांव पर ही बीता करती थीं. गर्मी की छुट्टियों के बाद कोई एक चीज़ जिसका स्वाद अब-तक ज़हन में तरोताजा है वो चीज़ खखोरी है,जिसे कई जगहों पर खुरचन भी कहते हैं. गांव में दूध गरमाने के लिए तब बोरसी का इस्तेमाल होता था, और दूध गरमाने वाला बर्तन जिसे 'हड़िया' कहके संबोधित किया जाता था. उसमें गरमाया जाने वाला दूध हल्के लाल रंग का हो जाता और नेचुरल रूप से मीठा दूध जिसमें शक्कर डालने की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती.
मगर सारे दूध के खत्म हो जाने के बाद किसी एक चीज़ जिसका हम बेसब्री से इंतज़ार करते वह खखोरी थी. खखोरी जो हड़िया(मृदभांड) के तलहटी में जमा-बैठा और जला दूध हुआ करती थी. खखोरी जो ख़ुद के साथ मिट्टी की सौंधी महक लिए होती थी. साल के दस महीने हमारे गांव-घर में होने की वजह से उस पर आस-पड़ोस के लड़के-लड़कियों और बिल्लियों का कब्ज़ा हुआ करता था, तो जाहिर है कि हमारी मौजूदगी बहुतों को नागवार गुज़रती और हमेंं पहली लड़ाई तो घर में रहने वाली बिल्लियों से ही करनी पड़ती, मगर हम भी कहां मानने वाले थे.
खखोरी को खखोरने के लिए भी सितुहा नामक अद्भुत चीज़(पदार्थ) का इस्तेमाल किया जाता था.
सितुहा जिसे हम ताल-पोखर के सूखने के बाद घर ले आया करते और पत्थर पर रगड़-रगड़ कर उसे छिलनी में तब्दील कर दिया करते. सितुहा जो गरीबों की छिलनी हुआ करता , जिससे कच्चे आम, आलू और सारी हरी सब्जियां का ऊपरी आवरण हटाया जाता. उसमें छेद हो जाने पर वो छिलनी और छेद न होने पर खखोरी निकालने के काम आता.
सितुहे से हड़िया(मृदभांड) के खखोरे जाने की आवाज़ के साथ ही वहां बिल्लियों औऱ आस-पड़ोस के लड़के-लड़कियों की जमात पहुंचने लगती, मगर अब तो हम वहां के मालिक थे और फर्जी_डॉन भी. तो जाहिर है कि सबसे ज़्यादा हिस्सा भी हम हीं हड़पने की कोशिश करते. अपने भाई-बहनों में सबसे ज़्यादा चटोर और दूध के ख़ासे शौकीन भी और ईया हमारे इस दूध-प्रेम के लिए ज़िम्मेदार भी थीं और प्रोत्साहक भी. आज़ न जाने क्यों ईया याद आ रही हैं, और याद आ रही है खखोरी और अद्भुत_सितुहा भी.
#गांव_घर #नॉस्टैलजिया #खखोरी #सितुहा #हम_आप
ईया जो हमारे संयुक्त परिवार की धुरी थीं, ईया जिन्हें पूरे गांव-जवार वाले किसी देवी-देवता के तौर पर जानते-मानते थे. धार्मिक और आध्यात्मिक इतनी कि कभी स्कूली शिक्षा न लेने के बावजूद कई पुराणों और महाकाव्यों की ज्ञाता थीं. मगर आज ईया को याद करने की वजह भी बहुत अजीब है.
ईया गांव में रहती थीं और हम अपनी पढ़ाई के सिलसिले में गांव-बदर ही नहीं बल्कि राज्य-बदर कर दिए गए थे. मगर गर्मी की छुट्टियां हमेशा गांव पर ही बीता करती थीं. गर्मी की छुट्टियों के बाद कोई एक चीज़ जिसका स्वाद अब-तक ज़हन में तरोताजा है वो चीज़ खखोरी है,जिसे कई जगहों पर खुरचन भी कहते हैं. गांव में दूध गरमाने के लिए तब बोरसी का इस्तेमाल होता था, और दूध गरमाने वाला बर्तन जिसे 'हड़िया' कहके संबोधित किया जाता था. उसमें गरमाया जाने वाला दूध हल्के लाल रंग का हो जाता और नेचुरल रूप से मीठा दूध जिसमें शक्कर डालने की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती.
मगर सारे दूध के खत्म हो जाने के बाद किसी एक चीज़ जिसका हम बेसब्री से इंतज़ार करते वह खखोरी थी. खखोरी जो हड़िया(मृदभांड) के तलहटी में जमा-बैठा और जला दूध हुआ करती थी. खखोरी जो ख़ुद के साथ मिट्टी की सौंधी महक लिए होती थी. साल के दस महीने हमारे गांव-घर में होने की वजह से उस पर आस-पड़ोस के लड़के-लड़कियों और बिल्लियों का कब्ज़ा हुआ करता था, तो जाहिर है कि हमारी मौजूदगी बहुतों को नागवार गुज़रती और हमेंं पहली लड़ाई तो घर में रहने वाली बिल्लियों से ही करनी पड़ती, मगर हम भी कहां मानने वाले थे.
खखोरी को खखोरने के लिए भी सितुहा नामक अद्भुत चीज़(पदार्थ) का इस्तेमाल किया जाता था.
सितुहा जिसे हम ताल-पोखर के सूखने के बाद घर ले आया करते और पत्थर पर रगड़-रगड़ कर उसे छिलनी में तब्दील कर दिया करते. सितुहा जो गरीबों की छिलनी हुआ करता , जिससे कच्चे आम, आलू और सारी हरी सब्जियां का ऊपरी आवरण हटाया जाता. उसमें छेद हो जाने पर वो छिलनी और छेद न होने पर खखोरी निकालने के काम आता.
सितुहे से हड़िया(मृदभांड) के खखोरे जाने की आवाज़ के साथ ही वहां बिल्लियों औऱ आस-पड़ोस के लड़के-लड़कियों की जमात पहुंचने लगती, मगर अब तो हम वहां के मालिक थे और फर्जी_डॉन भी. तो जाहिर है कि सबसे ज़्यादा हिस्सा भी हम हीं हड़पने की कोशिश करते. अपने भाई-बहनों में सबसे ज़्यादा चटोर और दूध के ख़ासे शौकीन भी और ईया हमारे इस दूध-प्रेम के लिए ज़िम्मेदार भी थीं और प्रोत्साहक भी. आज़ न जाने क्यों ईया याद आ रही हैं, और याद आ रही है खखोरी और अद्भुत_सितुहा भी.
#गांव_घर #नॉस्टैलजिया #खखोरी #सितुहा #हम_आप